श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-1
धृतराष्ट्र बोले (Dhritrashtr said):
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥१-१॥
- हे संजय, धर्मक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुये मेरे और पाण्डव के पुत्रों ने क्या किया।
- Assembled at Kurukshetr, at Dharmkshetr, and eager for combat, O Sanjay, what did my and Pandu’s sons do?
संजय बोले (Sanjay said):
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा। आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्॥१-२॥
- हे राजन, पाण्डवों की सेना व्यवस्था देख कर दुर्योधन ने अपने आचार्य के पास जा कर उनसे कहा।
- At the time, after having seen the Pandav army standing in battle array, King Duryodhan approached his teacher Dronacharya and spoke thus.
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्। व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥१-३॥
- हे आचार्य, आप के तेजस्वी शिष्य द्रुपदपुत्र द्वारा व्यवस्थित की इस विशाल पाण्डू सेना को देखिये।
- Behold, O master, this massive army of Pandu’s sons marshalled in battle formation by your wise pupil, the son of Drupad (Dhristdyumn).
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि। युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥१-४॥ धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्। पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः॥१-५॥ युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्। सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥१-६॥
- इसमें भीम और अर्जुन के ही समान बहुत से महान शूरवीर योधा हैं जैसे युयुधान, विराट और महारथी द्रुपद, धृष्टकेतु, चेकितान, बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज तथा नरश्रेष्ट शैब्य। विक्रान्त युधामन्यु, वीर्यवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र (अभिमन्यु), और द्रोपदी के पुत्र - सभी महारथी हैं।
- Here in the army are many valiant archers, Yuyudhan, Virat and the great martial commander Drupad, who are a worthy match for the brave Arjun and Bheem, and Dhrishtketu, Chekitan, and... the mighty King of Kashi, as well as Purujeet and Kuntibhoj, and Shaibya, the unparalleled among men and ... The valorous Yudhmanyu, the mighty Uttmauj, Saubhadr, and Draupadi’s five sons, all great warriors.
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम। नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥१-७॥
- हे द्विजोत्तम, हमारी ओर भी जो विशिष्ट योद्धा हैं उन्हें आप को बताता हूँ। हमारी सैन्य के जो प्रमुख नायक हैं उन के नाम मैं आप को बताता हूँ।
- Be it known to you, O the worthiest of the twice-born (Brahmins), the names of those who are most eminent amongst us, the chiefs of our army; these I now name for your information.
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः। अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥१-८॥
- आप स्वयं, भीष्म पितामह, कर्ण, कृप, अश्वत्थामा, विकर्ण तथा सौमदत्त (सोमदत्त के पुत्र) - यह सभी प्रमुख योधा हैं।
- Your venerable self, Bheeshm and Karn, and also Kripavictor in wars, Ashwatthama and Vikarn, as well as Saumdutti (Bhurishrawa, son of Somdutt).
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः। नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥१-९॥
- हमारे पक्ष में युद्ध में कुशल, तरह तरह के शस्त्रों में माहिर और भी अनेकों योद्धा हैं जो मेरे लिये अपना जीवन तक त्यागने को त्यार हैं।
- And (there are) many other skilled warriors, too, equipped with numerous arms, who have forsaken hope of life for my sake.
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्। पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥१-१०॥
- भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी सेना का बल पर्याप्त नहीं है, परन्तु भीम द्वारा रक्षित पाण्डवों की सेना बल पूर्ण है।
- Our army defended10 by Bheeshm is unconquerable, while their army defended by Bheem is easy to vanquish.
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः। भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥१-११॥
- इसलिये सब लोग जिन जिन स्थानों पर नियुक्त हों वहां से सभी हर ओर से भीष्म पितामह की रक्षा करें।
- So, while keeping to your respective stations in the several divisions, all of you should doubtlessly protect Bheeshm alone on all sides.
तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः। सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥१-१२॥
- तब कुरुवृद्ध प्रतापवान भीष्म पितामह ने दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च स्वर में सिंहनाद किया और शंख बजाना आरम्भ किया।
- To Duryodhan’s delight then, his mighty grandsire and the eldest of the Kaurav (Bheeshm) blew his conch to blare forth a lion-like roar.
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥१-१३॥
- तब अनेक शंख, नगारे, ढोल, शृंगी आदि बजने लगे जिनसे घोर नाद उत्पन्न हुआ।
- Then there abruptly arose a tumult of conches and kettledrums, tabors, drums, and cow-horns.
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥१-१४॥
- तब श्वेत अश्वों से वहित भव्य रथ में विराजमान भगवान माधव और पाण्डव पुत्र अर्जुन नें भी अपने अपने शंख बजाये।
- Then, too, Madhav (Krishn) and Pandu’s son (Arjun), seated in the magnificent chariot to which white steeds were yoked, blew their celestial conches.
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः॥१-१५॥
- भगवान हृषिकेश नें पाञ्चजन्य नामक अपना शंख बजाया और धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त नामक शंख बजाया। तथा भीम कर्मा भीम नें अपना पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
- While Hrishikesh (Krishn) blew his conch Panchjanya and Dhananjay (Arjun) the conch named Devdutt, Vrikodar (Bheem) of awesome deeds blew the great conch Paundr.
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥१-१६॥
- कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर नें अपना अनन्त विजय नामक शंख, नकुल नें सुघोष और सहदेव नें अपना मणिपुष्पक नामक शंख बजाये।
- King Yudhisthir, the son of Kunti, blew the conch Anantvijay, whereas Nakul and Sahdev blew their conches Sughosh and Manipushpak.
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥१-१७॥ द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते। सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्॥१-१८॥
- धनुधर काशिराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट तथा अजेय सात्यकि, द्रुपद, द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य सभी राजाओं नें तथा महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) नें - सभी नें अपने अपने शंख बजाये।
- The King of Kashi, a great bowman, Shikhandi who dwells in the Supreme Spirit, the unvanquished Dhristdyumn, Virat and Satyaki, Drupad and the sons of Draupadi, and Subhadra’s son of powerful arms (Abhimanyu), all blew, O lord of the earth, their own conches.
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥१-१९॥
- शंखों की उस महाध्वनि से आकाश और पृथिवि गूँजने लगीं तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय भिन्न गये।
- The loud tumult, reverberating through heaven and earth, pierced the hearts of Dhritrashtr’s sons.
योद्धाओं का अवलोकन (अध्याय 1 शलोक 20 से 27)
संजय बोले (Sanjay said):अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥१-२०॥
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
- तब धृतराष्ट्र के पुत्रों को व्यवस्थित देख, कपिध्वज (जिनके ध्वज पर हनुमान जी विराजमान थे) श्री अर्जुन नें शस्त्र उठाकर भगवान हृषिकेश से यह वाक्य कहे।
- Then, O King, after viewing the sons of Dhritrashtr in array, when the discharge of missiles was about to commence, Kunti’s son (Arjun), whose ensign bore the image of Hanuman, raised his bow and spoke to Hrishikesh thus:
-
अर्जुन बोले (Arjun Said):सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥१-२१॥
यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥१-२२॥
- हे अच्युत, मेरा रथ दोनो सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दीजिये ताकी मैं युद्ध की इच्छा रखने वाले इन योद्धाओं का निरीक्षण कर सकूं जिन के साथ मुझे युद्ध करना है।
- ‘O Achyut (Krishn), keep my chariot between the two armies so that I may watch those who are formed up for combat and know whom I have to fight in the ensuing battle.
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥१-२३॥
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
- दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में प्रिय चाहने वाले राजाओं को जो यहाँ युद्ध के लिये एकत्रित हुये हैं मैं देखूँ लूं।
- Since I wish to observe those who have assembled here to fight for pleasing Dhritrashtr’s wicked-minded son (Duryodhan) in the battle.
-
संजय बोले (Sanjay said):एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥१-२४॥
- हे भारत (धृतराष्ट्र), गुडाकेश के इन वचनों पर भगवान हृषिकेश नें उस उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में स्थापित कर दिया।
- Thus addressed by Gudakesh, O descendant of Bharat (Dhritrashtr), Hrishikesh parked the unique chariot between the two armies,
-
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति॥१-२५॥
- रथ को भीष्म पितामह, द्रोण तथा अन्य सभी प्रमुख राजाओं के सामने (उन दोनो सेनाओं के बीच में) स्थापित कर, कृष्ण भगवान नें अर्जुन से कहा की हे पार्थ इन कुरुवंशी राजाओं को देखो।
- in front of Bheeshm, Dron, and all the other kings, and said, ‘Behold, O son of Pritha (Arjun), the assembled Kuru.’
-
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितॄनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातॄन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥१-२६॥
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्॥१-२७॥
- वहां पार्थ नें उस सेना में अपने पिता के भाईयों, पितामहों (दादा), आचार्यों, मामों, भाईयों, पुत्रों, मित्रों, पौत्रों, श्वशुरों (ससुर), संबन्धीयों को दोनो तरफ की सेनोओं में देखा।
- Parth then saw, mustered in the two armies, uncles, granduncles, teachers, maternal uncles, brothers, sons, grandsons and friends, as well as fathers-in-law and wellwishers.
अर्जुन का दुर्बल ह्रदय (अध्याय 1 शलोक 28 से 47)
संजय बोले (Sanjay Said):
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
- इस प्रखार अपने सगे संबन्धियों और मित्रों को युद्ध में उपस्थित देख अर्जुन का मन करुणा पूर्ण हो उठा और उसने विषाद पूर्वक कृष्ण भगवान से यह कहा।
- Seeing all these kinsmen assembled together and overwhelmed by intense pity, he spoke thus in great sorrow:
अर्जुन बोले (Arjun Said):
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥१-२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥१-२९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥
- हे कृष्ण, मैं अपने लोगों को युद्ध के लिये तत्पर यहाँ खडा देख रहा हूँ। इन्हें देख कर मेरे अंग ठण्डे पड रहे है, और मेरा मुख सूख रहा है, और मेरा शरीर काँपने लगा है। मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिरने को है, और मेरी सारी त्वचा मानो आग में जल उठी है। मैं अवस्थित रहने में अशक्त हो गया हूँ, मेरा मन भ्रमित हो रहा है।
- Seeing these kith and kin, mustered with the purpose of waging war, O Krishn, my limbs grow weak, my mouth is dry, my body trembles, my hair stands on end, the Gandeev (Arjun’s bow) slips from my hand, my skin is burning all over, I am unable to stand, and my mind is bewildered.
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥
- हे केशव, जो निमित्त है उसे में भी मुझे विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हे केशव, मुझे अपने ही स्वजनों को मारने में किसी भी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता।
- I see, O Madhav (Krishn), inauspicious portents, and I can perceive no prefix in the idea of slaughtering kinsmen in the battle.
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥१-३२॥
- हे कृष्ण, मुझे विजय, या राज्य और सुखों की इच्छा नहीं है। हे गोविंद, (अपने प्रिय जनों की हत्या कर) हमें राज्य से, या भोगों से, यहाँ तक की जीवन से भी क्या लाभ है।
- I aspire, O Krishn, after neither victory nor a realm and its pleasures for of what avail is sovereignty to us, O Govind (Krishn), or enjoyment, or even life itself?
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥१-३३॥
- जिन के लिये ही हम राज्य, भोग तथा सुख और धन की कामना करें, वे ही इस युद्ध में अपने प्राणों की बलि चढने को त्यार यहाँ अवस्थित हैं।
- They for whose sake we crave for a kingdom, pleasures, and enjoyments are formed up here, putting at stake both their lives and wealth.
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा॥१-३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥१-३५॥
- गुरुजन, पिता जन, पुत्र, तथा पितामहा, मातुल, ससुर, पौत्र, साले आदि सभी संबन्धि यहाँ प्रस्तुत हैं। हे मधुसूदन। इन्हें हम त्रैलोक्य के राज के लिये भी नहीं मारना चाहेंगें, फिर इस धरती के लिये तो बात ही क्या है, चाहे ये हमें मार भी दें।
- Teachers, uncles, nephews as well as granduncles, maternal uncles, fathers-in-law, grandnephews, brothersin-law, and other kinsmen. Though they might slay me, I yet have no desire to kill them, O Madhusudan22 (Krishn), even for a realm made up of the three worlds, still less for this earth alone.
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥
- धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मार कर हमें भला क्या प्रसन्नता प्राप्त होगी हे जनार्दन। इन आततायिनों को मार कर हमें पाप ही प्राप्त होगा।
- What happiness can we have, O Janardan(Krishn), from slaying these sons of Dhritrashtr? Only sin will fall to our lot if we kill even these wicked men.
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥१-३७॥
- इसलिये धृतराष्ट्र के पुत्रो तथा अपने अन्य संबन्धियों को मारना हमारे लिये उचित नहीं है। हे माधव, अपने ही स्वजनों को मार कर हमें किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है।
- So it is not for us to kill Dhritrashtr’s sons, for how indeed can we be happy, O Madhav (Krishn), if we slaughter our own kinsmen?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥१-३९॥
- यद्यपि ये लोग, लोभ के कारण जिनकी बुद्धि हरी जा चुकी है, अपने कुल के ही क्षय में और अपने मित्रों के साथ द्रोह करने में कोई दोष नहीं देख पा रहे। परन्तु हे जनार्दन, हम लोग तो कुल का क्षय करने में दोष देख सकते हैं, हमें इस पाप से निवृत्त क्यों नहीं होना चाहिये (अर्थात इस पाप करने से टलना चाहिये)।
- Although, with their minds vitiated by greed, they (the Kaurav) have no awareness of the evil they do in destroying families and in being treacherous to friends, why should we, O Janardan, who know that it is evil to destroy families, not turn away from the sinful act
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥१-४०॥
- कुल के क्षय हो जाने पर कुल के सनातन (सदियों से चल रहे) कुलधर्म भी नष्ट हो जाते हैं। और कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सभी प्रकार के अधर्म बढने लगते हैं।
- In case of the destruction of a family its eternal sacred traditions are lost, and impiety afflicts the whole family with the loss of its values.
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥
- अधर्म फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं। और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण धर्म नष्ट हो जाता है।
- When sin prevails, O Krishn, women of the family stray from virtue, and when they are unchaste, O descendant of the ‘Vrishnis, (Varshneya: Krishn), there is generated an unholy mixture of classes (varnsankar).
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥१-४२॥
- कुल के कुलघाती वर्णसंकर (वर्ण धर्म के न पालन से) नरक में गिरते हैं। इन के पितृ जन भी पिण्ड और जल की परम्पराओं के नष्ट हो जाने से (श्राद्ध आदि का पालन न करने से) अधोगति को प्राप्त होते हैं (उनका उद्धार नहीं होता)।
- The unholy intermingling of classes condemns the destroyer of the family as well as the family itself to hell, for their ancestors, deprived of the offerings of obsequial cakes of rice and water libations, fall (from their heavenly abode).
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥१-४३॥
- इस प्रकार वर्ण भ्रष्ट कुलघातियों के दोषों से उन के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।
- The sin committed by destroyers of families, which causes an intermingling of classes, puts to an end the timeless dharm of both caste and family.
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥१-४४॥
- हे जनार्दन, कुलधर्म भ्रष्ट हुये मनुष्यों को अनिश्चित समय तक नरक में वास करना पडता है, ऐसा हमने सुना है।
- We have heard, O Janardan, that hell is indeed the miserable habitat, for an infinite time, of men, the traditions of whose families have been destroyed.
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥
- अहो ! हम इस महापाप को करने के लिये आतुर हो यहाँ खडे हैं। राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने के लिये व्याकुल हैं।
- Tempted by the pleasures of temporal power, alas, what a heinous crime have we resolved to commit by killing our own kith and kin!
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥
- यदि मेरे विरोध रहित रहते हुये, शस्त्र उठाये बिना भी यह धृतराष्ट्र के पुत्र हाथों में शस्त्र पकडे मुझे इस युद्ध भूमि में मार डालें, तो वह मेरे लिये (युद्ध करने की जगह) ज्यादा अच्छा होगा।
- I shall indeed prefer the prospect of being slain by the armed sons of Dhritrashtr while (I am myself) unarmed and unresisting.
संजय बोले (Sanjay Said):
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥
- यह कह कर शोक से उद्विग्न हुये मन से अर्जुन अपने धनुष बाण छोड कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।
- Speaking thus and smitten by grief, in the midst of the battlefield, Arjun put aside his bow and arrows, and sat down in the chariot.
03. कर्मयोग
अर्जुन बोले (Arjun Said):ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥
- हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं॥
- 0 Janardan, if you think knowledge superior to action, why do you, O Keshav, ask me to engage in fearsome action?
-
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥
- मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है। इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो॥
- Since your complex words are so confusing to my mind, kindly tell me the one way by which I may attain to the state of blessedness.
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३- ३॥
- हे नि़ष्पाप, इस लोक में मेरे द्वारा दो प्रकार की निष्ठाऐं पहले बताई गयीं थीं।
- ज्ञान योग सन्यास से जुड़े लोगों के लिये
- और कर्म योग उनके लिये जो कर्म योग से जुड़े हैं॥
- I told you before, O the sinless (Arjun), two ways of spiritual discipline,
- the Way of Discrimination or Knowledge for sages and the Way of Selfless
- Action for men of action.
-
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३- ४॥
- कर्म का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म सिद्धी नहीं प्राप्त कर सकता
- अतः कर्म योग के अभ्यास में कर्मों का करना जरूरी है।
- और न ही केवल त्याग कर देने से सिद्धी प्राप्त होती है॥
- Man neither attains to the final state of actionlessness by desisting from work,
- nor does he achieve Godlike perfection by just renunciation of work.
-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३- ५॥
- कोई भी एक क्षण के लिये भी कर्म किये बिना नहीं बैठ सकता।
- सब प्रकृति से पैदा हुऐ गुणों से विवश होकर कर्म करते हैं॥
- Since all men have doubtlessly sprung from nature
- no one can at any time live even for a moment without action.
-
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३- ६॥
- कर्म कि इन्द्रीयों को तो रोककर, जो मन ही मन विषयों के बारे में सोचता है
- उसे मिथ्या अतः ढोंग आचारी कहा जाता है॥
- That deluded man is a dissembler who apparently restrains h
- is senses by violence2 but whose mind continues to be preoccupied
- with objects of their gratification.
-
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३- ७॥
- हे अर्जुन, जो अपनी इन्द्रीयों और मन को नियमित कर कर्म का आरम्भ करते हैं,
- कर्म योग का आसरा लेते हुऐ वह कहीं बेहतर हैं॥
- And, O Arjun, that man is meritorious who restrains his senses
- with his mind and employs his organs of action to do selfless work
- in a spirit of complete detachment.
-
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३- ८॥
- जो तुम्हारा काम है उसे तुम करो क्योंकि कर्म से ही अकर्म पैदा होता है,
- मतलब कर्म योग द्वारा कर्म करने से ही कर्मों से छुटकारा मिलता है।
- कर्म किये बिना तो यह शरीर की यात्रा भी संभव नहीं हो सकती। शरीर है तो कर्म तो करना ही पड़ेगा॥
- You ought to do your prescribed action as enjoined by scripture,
- for doing work is better than not doing any, and
- in the absence of it even the journey of your body may not be completed.
अर्जुन का दुर्बल ह्रदय (अध्याय 1 शलोक 28 से 47)
संजय बोले (Sanjay Said):
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
- इस प्रखार अपने सगे संबन्धियों और मित्रों को युद्ध में उपस्थित देख अर्जुन का मन करुणा पूर्ण हो उठा और उसने विषाद पूर्वक कृष्ण भगवान से यह कहा।
- Seeing all these kinsmen assembled together and overwhelmed by intense pity, he spoke thus in great sorrow:
अर्जुन बोले (Arjun Said):
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥१-२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥१-२९॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥१-३०॥
- हे कृष्ण, मैं अपने लोगों को युद्ध के लिये तत्पर यहाँ खडा देख रहा हूँ। इन्हें देख कर मेरे अंग ठण्डे पड रहे है, और मेरा मुख सूख रहा है, और मेरा शरीर काँपने लगा है। मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष गिरने को है, और मेरी सारी त्वचा मानो आग में जल उठी है। मैं अवस्थित रहने में अशक्त हो गया हूँ, मेरा मन भ्रमित हो रहा है।
- Seeing these kith and kin, mustered with the purpose of waging war, O Krishn, my limbs grow weak, my mouth is dry, my body trembles, my hair stands on end, the Gandeev (Arjun’s bow) slips from my hand, my skin is burning all over, I am unable to stand, and my mind is bewildered.
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥१-३१॥
- हे केशव, जो निमित्त है उसे में भी मुझे विपरीत ही दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हे केशव, मुझे अपने ही स्वजनों को मारने में किसी भी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता।
- I see, O Madhav (Krishn), inauspicious portents, and I can perceive no prefix in the idea of slaughtering kinsmen in the battle.
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥१-३२॥
- हे कृष्ण, मुझे विजय, या राज्य और सुखों की इच्छा नहीं है। हे गोविंद, (अपने प्रिय जनों की हत्या कर) हमें राज्य से, या भोगों से, यहाँ तक की जीवन से भी क्या लाभ है।
- I aspire, O Krishn, after neither victory nor a realm and its pleasures for of what avail is sovereignty to us, O Govind (Krishn), or enjoyment, or even life itself?
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥१-३३॥
- जिन के लिये ही हम राज्य, भोग तथा सुख और धन की कामना करें, वे ही इस युद्ध में अपने प्राणों की बलि चढने को त्यार यहाँ अवस्थित हैं।
- They for whose sake we crave for a kingdom, pleasures, and enjoyments are formed up here, putting at stake both their lives and wealth.
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबन्धिनस्तथा॥१-३४॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥१-३५॥
- गुरुजन, पिता जन, पुत्र, तथा पितामहा, मातुल, ससुर, पौत्र, साले आदि सभी संबन्धि यहाँ प्रस्तुत हैं। हे मधुसूदन। इन्हें हम त्रैलोक्य के राज के लिये भी नहीं मारना चाहेंगें, फिर इस धरती के लिये तो बात ही क्या है, चाहे ये हमें मार भी दें।
- Teachers, uncles, nephews as well as granduncles, maternal uncles, fathers-in-law, grandnephews, brothersin-law, and other kinsmen. Though they might slay me, I yet have no desire to kill them, O Madhusudan22 (Krishn), even for a realm made up of the three worlds, still less for this earth alone.
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥
- धृतराष्ट्र के इन पुत्रों को मार कर हमें भला क्या प्रसन्नता प्राप्त होगी हे जनार्दन। इन आततायिनों को मार कर हमें पाप ही प्राप्त होगा।
- What happiness can we have, O Janardan(Krishn), from slaying these sons of Dhritrashtr? Only sin will fall to our lot if we kill even these wicked men.
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥१-३७॥
- इसलिये धृतराष्ट्र के पुत्रो तथा अपने अन्य संबन्धियों को मारना हमारे लिये उचित नहीं है। हे माधव, अपने ही स्वजनों को मार कर हमें किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है।
- So it is not for us to kill Dhritrashtr’s sons, for how indeed can we be happy, O Madhav (Krishn), if we slaughter our own kinsmen?
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥१-३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥१-३९॥
- यद्यपि ये लोग, लोभ के कारण जिनकी बुद्धि हरी जा चुकी है, अपने कुल के ही क्षय में और अपने मित्रों के साथ द्रोह करने में कोई दोष नहीं देख पा रहे। परन्तु हे जनार्दन, हम लोग तो कुल का क्षय करने में दोष देख सकते हैं, हमें इस पाप से निवृत्त क्यों नहीं होना चाहिये (अर्थात इस पाप करने से टलना चाहिये)।
- Although, with their minds vitiated by greed, they (the Kaurav) have no awareness of the evil they do in destroying families and in being treacherous to friends, why should we, O Janardan, who know that it is evil to destroy families, not turn away from the sinful act
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥१-४०॥
- कुल के क्षय हो जाने पर कुल के सनातन (सदियों से चल रहे) कुलधर्म भी नष्ट हो जाते हैं। और कुल के धर्म नष्ट हो जाने पर सभी प्रकार के अधर्म बढने लगते हैं।
- In case of the destruction of a family its eternal sacred traditions are lost, and impiety afflicts the whole family with the loss of its values.
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥१-४१॥
- अधर्म फैल जाने पर, हे कृष्ण, कुल की स्त्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं। और हे वार्ष्णेय, स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण धर्म नष्ट हो जाता है।
- When sin prevails, O Krishn, women of the family stray from virtue, and when they are unchaste, O descendant of the ‘Vrishnis, (Varshneya: Krishn), there is generated an unholy mixture of classes (varnsankar).
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥१-४२॥
- कुल के कुलघाती वर्णसंकर (वर्ण धर्म के न पालन से) नरक में गिरते हैं। इन के पितृ जन भी पिण्ड और जल की परम्पराओं के नष्ट हो जाने से (श्राद्ध आदि का पालन न करने से) अधोगति को प्राप्त होते हैं (उनका उद्धार नहीं होता)।
- The unholy intermingling of classes condemns the destroyer of the family as well as the family itself to hell, for their ancestors, deprived of the offerings of obsequial cakes of rice and water libations, fall (from their heavenly abode).
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥१-४३॥
- इस प्रकार वर्ण भ्रष्ट कुलघातियों के दोषों से उन के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।
- The sin committed by destroyers of families, which causes an intermingling of classes, puts to an end the timeless dharm of both caste and family.
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥१-४४॥
- हे जनार्दन, कुलधर्म भ्रष्ट हुये मनुष्यों को अनिश्चित समय तक नरक में वास करना पडता है, ऐसा हमने सुना है।
- We have heard, O Janardan, that hell is indeed the miserable habitat, for an infinite time, of men, the traditions of whose families have been destroyed.
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥१-४५॥
- अहो ! हम इस महापाप को करने के लिये आतुर हो यहाँ खडे हैं। राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने के लिये व्याकुल हैं।
- Tempted by the pleasures of temporal power, alas, what a heinous crime have we resolved to commit by killing our own kith and kin!
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥१-४६॥
- यदि मेरे विरोध रहित रहते हुये, शस्त्र उठाये बिना भी यह धृतराष्ट्र के पुत्र हाथों में शस्त्र पकडे मुझे इस युद्ध भूमि में मार डालें, तो वह मेरे लिये (युद्ध करने की जगह) ज्यादा अच्छा होगा।
- I shall indeed prefer the prospect of being slain by the armed sons of Dhritrashtr while (I am myself) unarmed and unresisting.
संजय बोले (Sanjay Said):
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥१-४७॥
- यह कह कर शोक से उद्विग्न हुये मन से अर्जुन अपने धनुष बाण छोड कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये।
- Speaking thus and smitten by grief, in the midst of the battlefield, Arjun put aside his bow and arrows, and sat down in the chariot.
03. कर्मयोग
अर्जुन बोले (Arjun Said):ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥
- हे केशव, अगर आप बुद्धि को कर्म से अधिक मानते हैं तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों न्योजित कर रहे हैं॥
- 0 Janardan, if you think knowledge superior to action, why do you, O Keshav, ask me to engage in fearsome action?
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व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥
- मिले हुऐ से वाक्यों से मेरी बुद्धि शंकित हो रही है। इसलिये मुझे वह एक रस्ता बताईये जो निष्चित प्रकार से मेरे लिये अच्छा हो॥
- Since your complex words are so confusing to my mind, kindly tell me the one way by which I may attain to the state of blessedness.
श्रीभगवान बोले (THE LORD SAID):
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
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यज्ञादि कर्म अनिवार्य (अध्याय 3 शलोक 9 से 24)
- शलोक 9
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यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥
- केवल यज्ञा समझ कर तुम कर्म करो हे कौन्तेय वरना इस लोक में कर्म बन्धन का कारण बनता है। उ
- सी के लिये कर्म करते हुऐ तुम संग से मुक्त रह कर समता से रहो॥
- Since the conduct of yagya is the only action and all other business
- in which people are engaged are only forms of worldly bondage,
- O son of Kunti, be unattached and do your duty to God well.
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- शलोक 10
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥ |
- यज्ञ के साथ ही बहुत पहले प्रजापति ने प्रजा की सृष्टि की और कहा
- की इसी प्रकार कर्म यज्ञ करने से तुम बढोगे
- और इसी से तुम्हारे मन की कामनाऐं पूरी होंगी॥
- At the beginning of kalp-the course of self-realization
- Prajapati Brahma shaped yagya along with mankind
- and enjoined on them to ascend by yagya which could give them
- what their hearts aspired to.
- शलोक 11
- देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
- परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥
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शलोक 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३- १३॥
- जो यज्ञ से निकले फल का आनंद लेते हैं वह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं
- लेकिन जो पापी खुद पचाने को लिये ही पकाते हैं वे पाप के भागीदार बनते हैं॥
- The wise who partake of what is left over from yagya are rid of all evil,
- but the sinners who cook only for the sustenance of their bodies
- partake of nothing but sin.
-
- शलोक 14
- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
- यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥
- जीव अनाज से होते हैं। अनाज बिरिश से होता है। और बिरिश यज्ञ से होती है।
- यज्ञ कर्म से होता है॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)
- All beings get their life from food, food grows from rain, rain emerges
- from yagya, and yagya is an outcome of action.
-
- शलोक 15
- कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
- तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥
- शलोक 14
- अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
- यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥
- जीव अनाज से होते हैं। अनाज बिरिश से होता है। और बिरिश यज्ञ से होती है।
- यज्ञ कर्म से होता है॥ (यहाँ प्राकृति के चलने को यज्ञ कहा गया है)
- All beings get their life from food, food grows from rain, rain emerges
- from yagya, and yagya is an outcome of action.
- शलोक 15
- कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
- तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥
- कर्म ब्रह्म से सम्भव होता है और ब्रह्म अक्षर से होता है।
- इसलिये हर ओर स्थित ब्रह्म सदा ही यज्ञ में स्थापित है।
- Be it known to you that action arose from the Ved and
- the Ved from the indestructible Supreme Spirit,
- so that the allpervasive, imperishable God is ever present in yagya.
- शलोक 16
- एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
- अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३- १६॥
- इस तरह चल रहे इस चक्र में जो हिस्सा नहीं लेता, सहायक नहीं होता,
- अपनी ईन्द्रीयों में डूबा हुआ वह पाप जीवन जीने वाला, व्यर्थ ही, हे पार्थ, जीता है॥
- The man in this world, O Parth, who loves sensual pleasure and lead an impious life,
- and does not conduct himself in accordance with the thus prescribed cycle (of Selfrealization), leads but a futile life.
- शलोक 17
- यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
- आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३- १७॥
- लेकिन जो मानव खुद ही में स्थित है, अपने आप में ही तृप्त है,
- अपने आप में ही सन्तुष्ट है, उस के लिये कोई भी कार्य नहीं बचता॥
- But there remains nothing more to do for the man who rejoices in his Self,
- finds contentment in his Self, and feels adequate in his Self.
- शलोक 18
- नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
- न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३- १८॥
- न उसे कभी किसी काम के होने से कोई मतलब है और न ही न होने से।
- और न ही वह किसी भी जीव पर किसी भी मतलब के लिये आश्रय लेता है॥
- Such a man has neither anything to gain from action nor anything to lose from
- inaction, and he has no interest in any being or any object.
- शलोक 19
- तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
- असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३- १९॥
- इसलिये कर्म से जुड़े बिना सदा अपना कर्म करते हुऐ समता का अचरण करो॥
- बिना जुड़े कर्म का आचरण करने से पुरुष परम को प्राप्त कर लेता है॥
- So always do what is right for you to do in the spirit of selflessness,
- for in doing his duty the selfless man attains to God.
- शलोक 20
- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
- लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३- २०॥
- कर्म के द्वारा ही जनक आदि सिद्धी में स्थापित हुऐ थे। इस लोक समूह, इस संसार के भले के लिये तुम्हें भी कर्म करना चाहिऐ॥
- Since sages such as Janak had also attained to the ultimate realization by action, and keeping in mind, the preservation of the (God made) order, it is incumbent upon you to act.
- शलोक 21
- यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
- स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३- २१॥
- क्योंकि जो ऐक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं। वह जो करता है उसी को
- प्रमाण
- मान कर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं॥
- Others emulate the actions of a great man and closely follow the example set by him.
- शलोक 22
- न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
- नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३- २२॥
- हे पार्थ, तीनो लोकों में मेरे लिये कुछ भी करना वाला नहीं है। और न ही कुछ पाने वाला है लेकिन फिर भी मैं कर्म में लगता हूँ॥
- Although, O Parth, there is no task in all the three worlds which I have to do, and neither is there any worthwhile object which I have not achieved, I am yet engaged in action.
- शलोक 23
- यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
- मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३- २३॥
- हे पार्थ, अगर मैं कर्म में नहीं लगूँ तो सभी मनुष्य भी मेरे पीछे वही करने लगेंगे॥
- For should I not be diligent in the performance of my task, O Parth, other men will follow my example in every way.
- शलोक 24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३- २४॥
- अगर मै कर्म न करूँ तो इन लोकों में तबाही मच जायेगी
- और मैं इस प्रजा का नाशकर्ता हो जाऊँगा॥
- If I do not perform my action well, the whole world will perish and
- I Shall be the cause of varnsankar and so a destroyer of mankind.

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