Saturday, 14 March 2015


Chatushloki Bhagawat ॥चतुःश्लोकी भागवत॥

श्रीभगवानुवाच

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।

पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥(१)

( श्री भगवान कहते हैं – सृष्टि के आरम्भ होने से पहले केवल मैं ही था, सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था, मेरे अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। सृष्टि का अन्त होने के बाद भी केवल मैं ही रहूँगा ।)

 ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।

तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥(२)

(आत्मा ही मूल तत्त्व है जो अदृश्य है, इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी प्रतीत होता है वह सभी माया है, आत्मा के अतिरिक्त जिसका भी आभास होता है वह अन्धकार के समान मिथ्या है।)

 यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।

प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्॥(३)

(जिसप्रकार पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) संसार की छोटी या बड़ी सभी वस्तुओं में स्थित होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं, उसी प्रकार मैं (आत्म स्वरूप में) सभी में स्थित होते हुए भी सब से अलग रहता हूँ।)

 एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।

अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥(४)

(आत्म-तत्त्व के जिज्ञासुओं के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में  जो सदैव एक समान रहता है, वही आत्म-तत्व है।)

 ॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥


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